हमारे स्वनामधन्य, यशस्वी और प्रातःस्मरणीय प्रधान जी को नए-नए कीर्तिमान
बनाने का शौक है। 'देश के इतिहास में पहली बार' वाक्यांश तो उनके नाम के साथ
इस कदर जुड़ गया है, जैसा कि पहले के नेताओं ने शायद कभी सोचा भी नहीं होगा।
वर्ष 2018 के अप्रैल की 12 तारीख को भी उन्होंने एक नया ही कीर्तिमान स्थापित
किया। विकास को बाधा पहुँचाने और लोकसभा को नहीं चलने देने वाले मक्कार विपक्ष
के विरोध में उन्होंने उपवास का आयोजन किया। आजाद भारत के इतिहास में शायद यह
पहला मौका था जब भारत का कोई प्रधान विपक्ष के अत्याचारों से इतना त्रस्त हो
जाए कि उसके विरोध में उसे उपवास रखना पड़े। पैंतालीस सदस्यों वाले विपक्षी
लंपट उसके 280 सदस्यों पर भारी पड़ रहे। अपने व्यस्त कार्यक्रम में प्रधानजी
को खुद को कहीं एक जगह बैठकर उपवास करने का मौका नहीं मिला। लेकिन, उनकी
पार्टी के तमाम साँसदों ने अलग-अलग जगहों पर उपवास करके एक नया कीर्तिमान कायम
किया। हाँ, प्रधानजी इस दौरान दिल्ली से लेकर चेन्नई तक की यात्रा करते रहे।
उपवास में रहते हुए भी।
इससे एक दिन पहले एक और कीर्तिमान जाने-अनजाने ही प्रधानजी के नाम पर और जुड़
गया। महाराष्ट्र के यवतमाल जिले के पचास साल के किसान शंकर भाउराव चयारे ने
अपने गाँव राजूवाड़ी में कीटनाशक पीकर आत्महत्या कर ली। इससे पहले उन्होंने
फाँसी लगाकर मरने की कोशिश की थी। लेकिन नाकाम रहने के बाद उन्होंने कीटनाशक
पी लिया। अपने पीछे छोड़े सुसाइड नोट में उन्होंने अपने ऊपर चढ़े कर्ज का
जिक्र करते हुए लिखा मैं कर्ज के बोझ से खुदकुशी कर रहा हूँ और प्रधानजी (यहाँ
पर उनका नाम) की सरकार मेरी मौत की जिम्मेदार है। आजाद भारत के इतिहास में
शायद यह भी पहला मौका है जब किसी किसान ने सीधे-सीधे प्रधानजी का नाम लेकर
उन्हें जिम्मेदार ठहराते हुए खुदकुशी कर ली हो। हालाँकि, इससे पहले पिछले साल
यवतमाल जिले में ही प्रकाश मंगांवकर नामक किसान ने खुदकुशी की थी। उसके पास
पाए गए एक पत्ते पर प्रधानजी की सरकार और दूसरे पर कर्ज से खुदकुशी लिखा हुआ
था। लेकिन, यह पहला मामला है जब प्रधानजी का सीधे-सीधे नाम लिया गया हो। इस
तरह से एक कीर्तिमान के तौर पर यह पहली बार ही बनता हुआ प्रतीत होता है। ऐसा
इसलिए भी कि किसान की बेटी ने बाकायदा पुलिस को दी गई अपनी शिकायत में
प्रधानजी के खिलाफ कार्रवाई की माँग भी की है।
खैर, कीर्तिमान तो बनते-बिगड़ते रहते हैं। कई बार जल्दी टूट जाते हैं। कई बार
देऱ से टूटते हैं। कई बार ऐसा भी होता है कि बरसों-बरस बरकरार भी रहते हैं। हम
तो बस यह कह सकते हैं कि 12 अप्रैल का यह वही दिन था जब पूरा देश कश्मीर में
एक आठ साल की बच्ची के साथ क्रूरतापूर्वक हुए बलात्कार और हत्या से आक्रोश में
डूबा हुआ था, जिस समय उन्नाव में विधायक के हाथों सामूहिक बलात्कार की शिकार
हुई युवती के पिता को थाने में पीट-पीटकर मार दिए जाने का रोष देश में साफ
दिखाई पड़ रहा था। उस समय प्रधानजी शांत मुद्रा में गांधी जी के अहिंसा के
सिद्धांत को याद करते हुए उपवास कर रहे थे।
उपवास शब्द बड़ा महान है। हमारी संस्कृति में पता नहीं क्यों इसकी इतनी
मान्यता है। पर दो दिन पहले ही उपवास का बड़ा उपहास हो चुका था। अब इसमें
ध्वन्यात्मक समानता है तो कोई क्या करे। लेकिन, उपवास से पहले खाए गए
छोले-भटूरों ने उपवासों की आवश्यकता पर ही प्रश्नचिह्न लगा दिया। आखिर इतनी
सांकेतिकता किस लिए। मजे से खाओ-पिओ। उपवास की क्या जरूरत है। पर जनता को
संदेश जो देना है। लोकतंत्र में संकेतों का महत्व भी तो कितना ज्यादा है।
न्याय सिर्फ होना नहीं चाहिए, होते हुए दिखना भी चाहिए। किसी चीज के सिर्फ
होने से काम नहीं चलेगा, उसे वैसा होते हुए दिखना भी पड़ेगा। अब भले ही उपवास
नहीं हो, लेकिन उपवास करते हुए दिखना जरूर चाहिए।
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किस्से कहानियाँ पढ़ने-सुनने का शौक बचपन से ही रहा है। दुनिया जहान के
साहित्य में कई बार ऐसे भयावह दृश्य भी पढ़े है जिन्हें अपने मस्तिष्क से उतार
पाना बेहद मुश्किल है। जॉन स्टाइनबेक का उपन्यास 'द ग्रेप्स ऑफ रेथ' (लाल
गुस्से के अंगूर) भी एक ऐसा ही उपन्यास है।
यहाँ पर एक लड़की है। जिसकी ताजी-ताजी शादी हुई है। अपनी कमसिन उमर में ही वह
गर्भवती है। पति के साथ उसके बहुत सारे राज साझा है। दुनिया जहान की
परेशानियों के बीच भी वो अपने पति की ओर देखती है और उन राजों को लेकर जो
सिर्फ उन दोनों के बीच साझा है, वो मुस्कुरा देती है। उसे पता है कि उसके अंदर
एक महत्वपूर्ण बदलाव आ रहा है। कोई है जो उसके अंदर है। कुछ पल रहा है। साँस
ले रहा है। वो जब चलती है तो अपने पाँव हल्के से रखती है कि कहीं अंदर पल रही
उस छोटी सी जान को धक्का न लगे। कहीं उसे नुकसान नहीं पहुँचे। ट्रक पर
खड़े-खड़े यात्रा करते समय भी वह ऊपर से हत्था पकड़ लेती है। अंदर जो पल रहा
है कहीं उसे कोई तकलीफ न हो।
वो अमेरिका के अरकांसास या उसके आस-पास के एक हिस्से में रहती थी। यह 1929 की
महामंदी के बाद का दौर था। बैंकों ने कर्ज चुका नहीं पाने वाले किसानों की
जमीनों पर कब्जा करना शुरू कर दिया था। दूर-दूर तक दिखती हर जमीन बैंकों या
उनसे जुड़ी कंपनियों की हो चुकी थी। किसान की फसलों को कीड़े लगे, धूल भरे
तूफान आए, फसलें खराब हुईं। किसान तबाह हो गए। जब कर्ज न चुका पाए तो जमीनें
भी छिन गई। अब उनका पूरा का पूरा परिवार भूखा है। उन सभी के पास दो-दो हाथ है।
वे अपने हाथ के लिए कुछ काम चाहते हैं। उन्हें कुछ काम मिल जाए। वे कुछ बो
सकते हैं। कुछ पैदा कर सकते हैं। खोदना, धकेलना, खींचना, बोना, उठाना। वो किसी
भी तरह का काम कर सकते हैं। उनके हाथ खाली हैं। वो अपने जाँगर से उसे भर देना
चाहते हैं। उनके हाथ का जाँगर भी पड़े-पड़े मर रहा है। उन्हें कुछ ऐसा मिल
जाता जिस पर वे अपने हाथों का इस्तेमाल कर पाते। लेकिन, यहाँ तो कुछ नहीं था।
वे अपनी मेहनत लगाते भी तो कहाँ।
उन्होंने कैलीफोर्निया के बारे में सुन रखा था। यहाँ पर संतरों और अंगूरों के
बड़े-बड़े बाग थे। जहाँ पर लोग डूब-डूबकर पानी में नहाते थे। संतरों को पेड़
से तोड़ते हुए वे उन्हें खा भी लिया करते थे। अंगूरों के रस उनके चेहरे पर भी
टपकने लगते थे। यह ऐसी जगह थी जहाँ पर खेती के बड़े-बड़े फार्मों के बीच हर
तरह का काम था। वहाँ पर काम की अच्छी मजदूरी मिलती थी। यह उनके लिए सपने जैसा
था। जहाँ जाकर उन्हें खूब सारा काम ढूँढ़ना था। खट-खट कर उसमें काम करना था।
उनके परिवार में इतने जने थे। सभी के पास दो-दो हाथ। अगर सभी मिलकर काम करें
तो उनके पास भी अपना एक घर होगा। सफेद रंग की दीवारों वाला। जिसके आस-पास
पेड़ों की छायाएँ होंगीं। शाम जब सूरज डूबा करेगा तो पेड़ों की वे छायाएँ लंबी
हो जाएँगी। जहाँ पर वे खुद अपने संतरे और अंगूर लगा सकेंगे। अरकांसास और आसपास
के लाखों किसान इसी उम्मीद में कैलीफोर्निया की तरफ बढ़ते हैं।
हमारी वो कमसिन लड़की, जिसके पेट में एक और जान साँस ले रही है, उसका परिवार
भी अपना बोरिया-बिस्तर समेटकर एक पुराने खड़खड़िया हुडसन ट्रक में सबकुछ लादकर
उस मनहूस हाईवे 66 पर सफर कर रहा है जो उन्हें अपने सपनों के देश मे ले जाने
वाला है। उन्हें कैलीफोर्निया पहुँचना है। जहाँ पर उन्हें ढेर सारा काम
मिलेगा। वे अपनी मेहनत से सबकुछ खरीद लेंगे। अपने जी-तोड़ श्रम से हर मुसीबत
को पाट देंगे। उस कमसिन लड़की का पति भी काम करेगा। वो काम भी करेगा, फिर
पढ़ाई भी। फिर कुछ अच्छा व्यवसाय कर लेगा। सफर के दौरान वो लड़की ऐसा सोच रही
है। उसका पति भी अपनी इस योजना को उस कमसिन लड़की के सामने, जिसका नाम
रोजश्रां है, रखता है और मंद-मंद मुस्कुराते हुए रोजश्रां इस पर अपनी सहमति दे
देती है।
उस कमसिन लड़की का बड़ा भाई, जो हत्या के मामले में जेल में बंद था और पैरोल
पर छूटकर बाहर आया है, उस कमसिन लड़की का छोटा भाई, उसके पिता, दादा, चाचा,
माँ, दादी, ईसाई धर्म का एक भूतपूर्व प्रचारक। सब लोग उस ट्रक पर सवार हैं और
अपने श्रम को बेचने के लिए कैलीफोर्निया की तरफ बढ़ रहे हैं। सफर लंबा है।
रास्ते की तकलीफें दादा-दादी की जान ले लेती हैं। उनके पैसे खतम हो गए। रास्ते
में हर तरफ उनके जैसे ही किसान बिखरे मिलते हैं, जो अपनी जमीन से उजड़ चुके
हैं। वे सभी काम की तलाश में कैलीफोर्निया जा रहे हैं। वहाँ पर उन्हें एक
उम्मीद की किरण दिख रही है। बस एक बार वहाँ पहुँच भर जाएँ। बाकी तो सब
मुसीबतें दूर हो ही जानी है। रास्ते की मुश्किलों ने उस कमसिन गर्भवती लड़की
के पति को डरा दिया। वो चुपचाप गायब हो गया। किसी को बता कर नहीं गया। गया तो
फिर लौटकर नहीं आया। किसी तरह से उनका हुडसन ट्रक कैलीफोर्निया पहुँचता है।
उनके पास न पैसे हैं, न ट्रक में ईधन। अपनी एक-एक पाई वो यहाँ तक पहुँचने में
ही खर्च कर चुके हैं। उनकी सामर्थ्य भी खतम हो गई है।
यहाँ शहर में मजदूरों की तमाम बस्तियाँ बसी हुई हैं। ये मजदूर हैं, जो पहले
किसान थे। वे अपने खेतों से उजड़कर काम की तलाश मे यहाँ आए हैं। यहाँ उन्हें
अपमानित किया जाता है। गालियाँ दी जाती हैं। ऐसे ही एक घटना में भूतपूर्व ईसाई
प्रचारक को पुलिस पकड़ ले जाती है। किसी तरह से उन्हें काम मिलता है। कभी जीवन
चलता है कभी नहीं। अपने पेट में पल रहे जीव के लिए वो चाहती है कि उसे थोड़ा
सा दूध मिले। लेकिन, यह उसके नसीब में कहाँ। यहाँ आकर उसके परिवार के सामने
पूरी तस्वीर साफ होती है। कैलीफोर्निया के बड़े-बड़े बागान कंपनियों और बैंकों
के कब्जे में है। उन्होंने सारी जमीनें घेरी हुई है। उन्हें इसमें काम करने
वाले मजदूर चाहिए। मजदूर उन्हें दो सौ चाहिए होते हैं, लेकिन वे चाहते हैं कि
वहाँ पर दो हजार मजदूर फालतू मौजूद रहें। जितने ज्यादा मजदूर होंगे, वे उतने
ही कम पैसे में काम करने को मजबूर होंगे। लोग सिर्फ दो रोटी के एवज में काम
करने को तैयार है। उनके पास मरने या काम करने में से किसी एक विकल्प को चुनना
है। उनके बच्चे भूख और बीमारी से बिलबिला कर मर रहे हैं। बुजुर्गों की मौत हो
रही है।
ऐसे में एक जगह हड़ताल पर चले गए मजदूरों की जगह पर कंपनी रोजश्रां के परिवार
को काम पर रख लेती है। मजदूर यहाँ पर अपनी मजदूरी बढ़वाना चाहते हैं। कंपनी
तैयार नहीं है। वो सबको आधी मजदूरी पर काम करने को कहती है। परिवार को यह पता
नहीं है। वो कंपनी में काम करने लगता है। लेकिन, अगले दिन हड़ताल टूट जाती है।
मजदूर आधी मजदूरी पर काम करने को राजी हो जाते हैं। परिवार को भी अब इसी
मजदूरी पर काम करने को कहा जाता है। लेकिन, इस बीच रोजश्रां के बड़े भाई के
हाथों एक पुलिस वाले की हत्या हो चुकी है। परिवार वहाँ से भागकर सड़क के
किनारे अपना ट्रक खड़ाकर वहाँ पर टेंट लगाकर गुजर करता है। बड़ा भाई भगोड़ों की
तरह जिंदगी बसर करता है और छोटा भाई अपना परिवार बसाने के लिए वहाँ से चुपचाप
खिसक लेता है। बरसात आती है। बाढ़ आती है। उनके टेंट डूब जाते हैं। प्रसव
वेदना में पड़ी रोजश्रां अपनी माँ और पिता की ओर निस्सहाय आँखों से देखती रहती
है। प्रसव पूरा हो जाता है। उसका बच्चा मर चुका है। वो थकी-हारी है। चारों तरफ
बाढ़ का पानी भरा है। दादा-दादी की पहले ही मौत हो चुकी थी। बड़ा भाई
लुक-छिपकर जीने को मजबूर है। छोटा भाई अपना परिवार बसाने चला गया। मुसीबतों से
घबराकर पति पहले ही फरार हो चुका है। अपनी माँ और परिवार के बचे-खुचे लोगों के
साथ किसी तरह से मन-मन भर के कदम उठाते हुए रोजश्रां एक ऊँची जगह की तरफ चल
रही है। उसकी छातियाँ दूध से भरी हैं। बच्चे का जो भोजन प्रकृति ने पहले से ही
उसके शरीर में तैयार कर दिया था। अब उसका कोई उपयोग नहीं था। बल्कि वो उसके
बोझ से मरी जा रही थी।
माँ-बेटी एक ऊँची सी जगह पहुँचते हैं। यहाँ पर एक किशोर एक आदमी के साथ पहले
से मौजूद है। वह आदमी मर रहा है। पहले तो वह इतना बीमार था कि काम पर ही न जा
सके। बीमारी ठीक हुई तो वह इतना भूखा हो गया कि चलने-फिरने की भी हालत नहीं
रही। वो वहाँ पर लेटा बस अपनी मौत का इंतजार कर रहा है। उसकी आँखों में भूख
है। वो कुछ चबा भी नहीं सकता। हाँ, थोड़ा दूध अगर मिल जाए तो शायद उसकी जान बच
जाए। रोजश्रां, वो कमसिन किसान लड़की अपनी भरी हुई छातियों को लेकर उस आदमी तक
पहुँच जाती है और उसके सिर को पीछे से सहारा देकर उसके मुँह को अपनी छातियों
के पास तक ले आती है। और धीरे से फुसफुसा कर कहती है, 'हाँ तुम्हें यह करना
होगा।'
जॉन स्टाइनबेक का उपन्यास 'द ग्रेप्स ऑफ रेथ' यहीं पर आकर समाप्त हो जाता है।
लेकिन, यह भयावह दृश्य मनो-मस्तिष्क से उतर पाना संभव सा नहीं लगता। क्या
सचमुच में ऐसा कहीं हुआ होगा। या जॉन स्टाइनबेक ने यह सिर्फ अपनी कल्पना से
गढ़ा है। हो सकता है कि इस दृश्य पर रोमन चैरिटी का असर हो। क्या पता। पर कई
बार हकीकत उससे कहीं ज्यादा कारुणिक होती है जितनी हम कल्पना करते हैं।
(रोम की एक कथा प्रचलित है। एक व्यक्ति सीमोन को मरने तक भूखा रखने की सजा दी
गई। उसे जेल में बंद कर दिया गया। उसकी बेटी पीरो ने जेल अधिकारियों से
प्रार्थना करके पिता से रोज मुलाकात की आज्ञा ले ली। मुलाकात से पहले उसकी
तलाशी ली जाती थी कि वो अपने साथ खाने का कोई सामान तो नहीं ले जा रही है।
बेटी पीरो अपने पिता सीमोन को रोज जाकर अपना दूध पिलाती थी। इस तरह से कई
दिनों बाद भी जब सीमोन की मौत नहीं हुई तो जेल अधिकारियों को संदेह हुआ। इसका
खुलासा होने के बाद बेटी का त्याग देखते हुए जेल अधिकारियों ने बाप को रिहा कर
दिया। यह कथा रोमन चैरिटी के नाम से प्रचलित है। साहित्य और संस्कृति कई सारे
कलारूपों में इस कथा का प्रयोग हुआ है। इस पर कथा पर बनी पेंटिंग्स भी
लोकप्रिय रही हैं।)
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कल्पना से ज्यादा करुणा हकीकत में है। लगभग साल भर पहले जंतर मंतर पर एक लाइन
से बिछाए गए नरमुंडों ने भी इसी का अहसास कराया था। राधाकृष्ण की उम्र पचास
साल के लगभग थी। वे तमिलनाडु के तिरुची जिले के एक गाँव में रहते थे। गाँव के
पास ही उनके खेत थे। इन खेतों में वे धान उगाते थे। परिवार में तीन लड़कियाँ
और दो लड़के थे। बच्चे अभी पढ़ाई कर रहे थे। खेती में अलग-अलग जरूरतों के लिए
उन्होंने पचास हजार के लगभग रुपये उधार लिए हुए थे। फसल अच्छी हो जाती तो इस
उधार को चुकाना कोई बड़ी बात नहीं थी। लेकिन हुआ कुछ और ही। सिंचाई के लिए
पानी नहीं मिला। खड़ी फसल सूख गई। उधार चुकाने के लिए बैंक के कर्मचारी
लानत-मलामत करने लगे। खेत पर कब्जे की धमकियाँ दी जाने लगीं। जिंदगी जीने की
तमाम कोशिशें नाकाम साबित होने लगीं। रोज-रोज की जिल्लत से तंग आकर राधाकृष्ण
ने जहर खाकर जान दे दी।
कुछ ऐसी ही कहानी तिरुची के ही एक अन्य किसान लक्ष्मी की भी है। पैंतालीस
वर्षीय लक्ष्मी भी धान की खेती करते थे। परिवार में पत्नी के अलावा तीन
बेटियाँ थीं। पानी की कमी के चलते उनके खेत भी सूख गए। बैंक वालों के बार-बार
के तगादे और धमकियों से तंग आकर उन्होंने फाँसी लगाकर जान दे दी। परिवार का आज
भी रो-रोकर बुरा हाल है। 59 वर्षीय किसान मुत्तरसन की कहानी भी ऐसी ही थी। बस
इसमें अंतर है तो सिर्फ इतना सा कि अपनी खराब होती फसल और बैंक वालों की
धमकियों से तंग आकर एक दिन वे अपने खेत पर ही गश खाकर ऐसा गिरे कि दोबारा उठ
नहीं सके। जबकि, नागस्टीन ने भी सिर्फ पचास हजार का कर्ज नहीं चुका पाने के
चलते कीटनाशक पीकर जान दे दी।
पिछले साल यानी 2017 का यही मार्च-अप्रैल का वक्त था। तब तक जंतर-मंतर से
आंदोलनकारियों को बेदखल नहीं किया गया था। बल्कि, अपना प्रतिरोध दर्ज कराने की
यह एक मुख्य जगह मानी जाती थी। पता नहीं क्यों लोगों को इस बात का यकीन था कि
यहाँ पर किए गए विरोध-प्रदर्शन को देशभर के लोग नोटिस लेंगे। खासतौर पर जंतर
मंतर पर पैदा हुई एक राजनीतिक पार्टी को मिली सफलता के बाद तो इस तरह का भरम
कुछ ज्यादा ही मजबूत हो गया। हालाँकि, ऐसा होता तो जंतर-मंतर पर प्रदर्शन करने
वाले ही यूँ न खदेड़ दिए गए होते।
खैर, तमिलनाडु से आए हुए किसानों का यह जत्था अपने साथियों के नरमुंड भी ले
आया था। ये उन किसानों के नरमुंड थे जिन्होंने कर्ज नहीं चुका पाने के चलते
आत्महत्या कर ली या फिर उन्हें ऐसा सदमा लगा कि वे अपनी जिंदगी की जंग हार
बैठे। राधाकृष्ण, लक्ष्मी, मुत्तरसन, नागस्टीन के नरमुंड मौत के बाद भी अपना
हक माँगने यहाँ पहुँचे थे। तमिलनाडु से आए ये किसान गाढ़े हरे रंग की लुंगी को
घुटनों से मोड़कर ऊपर बांध लेते थे। उनके शरीर धूप में पके हुए थे। हथेलियों
पर पड़े गट्ठे उनके किसानी जीवन और मेहनत की गवाही दे रहे थे। अपने भरसक
उन्होंने सब कुछ किया। अपनी दुर्शशा की तरफ ध्यान खींचने के लिए उन्होंने
आंदोलन के तमाम तरीके अपनाए। लेकिन, जो इतनी आसानी से मान जाए वह राज्य सत्ता
कैसी। निराश होकर आखिर तमिलनाडु के इन किसानों को वापस जाना ही पड़ा। पता नहीं
अब उन नरमुंडों का क्या हुआ। जो कभी किसान हुआ करते थे। फिर किसानी ने ही
उन्हें कत्ल कर दिया और वे नरमुंडों में तब्दील हो गए।
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कर्ज के जाल में फँसे हल्कू और उसकी स्त्री का यह सहज संवाद है -
हल्कू ने आकर स्त्री से कहा - सहना आया है, लाओ, जो रुपये रखे हैं, उसे दे
दूँ। किसी तरह गला तो छूटे।
मुन्नी झाड़ू लगा रही थी। पीछे फिरकर बोली - तीन ही तो रुपये हैं, दे दोगे तो
कंबल कहाँ से आवेगा। माघ पूस की रात हार में कैसे कटेगी। उससे कह दो, फसल पर
रुपये दे देंगे। अभी नहीं।
हल्कू एक क्षण अनिश्चित दशा में खड़ा रहा। पूस सिर पर आ गया, कंबल के बिना हार
में रात को वह किसी भी तरह नहीं सो सकता। मगर सहना मानेगा नहीं, घुड़कियाँ
जमावेगा, गालियाँ देगा। बला से जाड़ों में मरेंगे, बला तो सिर से टल जाएगी। यह
सोचता हुआ वह अपना भारी-भरकम डील लिए हुए (जो उसके नाम को झूठ सिद्ध करता था)
स्त्री के समीप आ गया और खुशामद करके बोला - ला दे दे, गला तो छूटे। कंबल के
लिए कोई दूसरा उपाय सोचूँगा।
मुन्नी उसके पास से दूर हट गई और आँखें तरेरती हुई बोली - कर चुके दूसरा उपाय।
जरा सुनूँ, कौन उपाय करोगे। कोई खैरात दे देगा कंबल। न जाने कितनी बाकी है जो
किसी तरह चुकने में ही नहीं आती। मैं कहती हूँ, तुम क्यों नहीं खेती छोड़
देते। मर-मर काम करो, उपज हो तो बाकी दे दो, चलो छुट्टी हुई। बाकी चुकाने के
लिए ही तो हमारा जनम हुआ है। पेट के लिए मजूरी करो। ऐसी खेती से बाज आए। मैं
रुपये न दूँगी - न दूँगी।
हल्कू उदास होकर बोला - तो क्या गाली खाऊँ।
मुन्नी ने तड़पकर कहा - गाली क्यों देगा, क्या उसका राज है।
मगर यह कहने के साथ ही उसकी तनी हुई भौंहें ढीली पड़ गईं। हल्कू के उस वाक्य
में जो कठोर सत्य था, वह मानो एक भीषण जंतु की भाँति उसे घूर रहा था।
उसने जाकर आले पर से रुपये निकाले और लाकर हल्कू के हाथ पर रख दिए। फिर बोली -
तुम छोड़ दो अबकी से खेती। मजूरी में सुख से एक रोटी खाने को तो मिलेगा। किसी
की धौंस तो न रहेगी। अच्छी खेती है। मजूरी करके लाओ, वह भी उसी में झोंक दो,
उस पर से धौंस।
हल्कू ने रुपये लिए और इस तरह बाहर चला मानो अपना हृदय निकाल कर देने जा रहा
हो। उसने मजूरी से एक-एक पैसा काट-कपटकर तीन रुपये कंबल के लिए जमा किए थे। वे
आज निकले जा रहे थे। एक-एक पग के साथ उसका मस्तक अपनी दीनता के भार से दबा जा
रहा था।
दृश्य बदल जाता है। रात ठंड से भरी है। हल्कू अपनी फसल की देख-रेख में जुटा
हुआ है। ठंड इतनी है कि उसके शरीर में घुसी चली आ रही है। ठंड से काँपता किसान
अपने कुत्ते जबरा से संवाद करता है। खुद अपने ही शरीर में घुस जाने की कोशिश
करता है। कुत्ते को गोद में बैठा लेता है। लेकिन जब बात नहीं बनती तो पत्तियों
के ढेर में आग लगाकर शरीर सेंकने लगता है। फिर आग के आलस में इस कदर डूब जाता
है कि उसे किसी भी चीज की परवाह नहीं रही। नीलगाय उसकी खड़ी फसल को तहस-नहस कर
देती हैं। जबरा ने पूरी स्वामिभक्ति दिखाई लेकिन नीलगायों को भगा न सका। किसान
अपनी चौपट फसल को देखकर भी खास चिंतित नहीं है। चलो पीछा तो छूटा। अब मजदूरी
की जाएगी। आप तो जानते ही हैं कि यह पूस की एक रात थी। इस रात के बाद एक किसान
अपनी खेती के छोटे से टुकड़े को छोड़कर मजदूर बनने की तरफ बढ़ जाता है। आखिर
खेती से उसे मिल भी क्या रहा था। सब कुछ तो बाकी चुकाने में चला जा रहा था।
ऐसी ही एक कहानी झींगुर और बुद्धू की भी है। झींगुर को अपनी फसलों पर बड़ा
गर्व था। उसी का रोब था। खेत के मेड़ की तरफ से अपनी भेड़ों को लेकर बढ़ रहे
बुद्धू को पहले तो वह टोकता है। लेकिन, जब बुद्धू नहीं मानता है तो लाठी लेकर
उसकी भेड़ों पर पिल पड़ता है। कई भेड़ें घायल हो जाती हैं। लेकिन, इसका
खामियाजा भुगतने में भी देर नहीं लगती। उसकी गन्ने की खड़ी फसल में आग लग जाती
है। किसान तबाह हो जाता है। खेती छिनने के बाद मजूरी के अलावा उसके पास पेट
भरने का कोई साधन नहीं। इधर बुद्धू की श्रीवृद्धि हो रही है। पर यहाँ भी पासा
पलट जाता है। बुद्धू को गोहत्या का पाप लगता है और इस पाप के प्रायश्चित में
उसका सबकुछ होम हो जाता है। आखिरकार झींगुर और बुद्धू एक ही इमारत के निर्माण
में मजदूरी कर रहे हैं। एक गारा भरता है दूसरा तसला उठाता है। बाद में दोनों
साथ ही रोटी खाते हैं फिर अपना गुनाह कबूलते हैं। खेती से इस मुक्तिमार्ग पर
चलते हुए वे दोनों अब मजदूर हो चुके हैं। प्रेमचंद की ये दोनों कहानियाँ अपने
खेतों से उजड़कर मजदूर बनते किसानों की दशा का काफी कुछ बयान करती हैं।
शायद कभी लोगों को जमीनों से बांधा भी ऐसे ही जबरदस्ती गया था। मलयाली
उपन्यासकार ताकशी शिवशंकर पिल्लै का उपन्यास रस्सी एक क्षेत्र विशेष में इसका
विशद् चित्रण प्रस्तुत करता है। राजा को लगान तब तक नहीं मिलेगा जब तक कि
जमीनों को कोई जोतेगा-बोएगा। राजा के कारिंदे परिवार के लोगों को पकड़-पकड़कर,
परिवार के लोगों की सदस्य संख्या के हिसाब से जमीनों का आवंटन करते हैं। ताकि
हर कोई खेत जोते-बोए और राजा को उसका लगान भी चुकाए। राजा की इच्छा के आगे सिर
झुकाते हुए, परिवार को न-नुकुर करते हुए भी जमीनों पर जोतने-बोने का हक लेना
ही पड़ता। चाहे मरे हुए मन से ही। कैसा था वो जमाना भी।
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असली भारत गाँवों में बसता है या फिर भारत एक कृषि प्रधान देश है। हमारी
शिक्षा व्यवस्था से गुजरने वाला शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति होगा, जिसकी नजर इस
वाक्य पर नहीं पड़ी हो। हालाँकि, देश की सच्चाई अब काफी कुछ बदल सी गई है।
गाँवों में लोगों का निवास मजबूरी का सबब बन गया है और खेती पर निर्भर लोगों
की तादाद में लगातार कमी आ रही है। इसे ऐसे भी कह सकते हैं कि खेती में अब
इतने सारे लोगों को रोजगार देने, उनके भरण-पोषण का सामर्थ्य ही नहीं रहा। इसके
चलते अपने खेतों से उजड़कर शहर की ओर प्रस्थान करने वालों की संख्या में
लगातार इजाफा होता रहा है। पूस की रात में भी यही प्रक्रिया प्रभावी है और
मुक्तिमार्ग में किसी और कारण से यही प्रक्रिया प्रभावी है।
माना जाता है कि भारत के गाँव पहले किसी आत्मनिर्भर इकाइयों की तरह काम करते
थे। यानी गाँव की जरूरत भर का लगभग सामान गाँव में ही पैदा होता था और उसकी
खपत भी वहीं पर हो जाती थी। भारत की जाति व्यवस्था इस तरह की अर्थव्यवस्था के
एकदम अनुकूल थी। यहाँ पर हर जाति का अपना पेशा निर्धारित था। वो अपनी जाति का
पेशा करता था। बाकी अपनी जाति का। अपने पेशे के जरिए वह समाज की कुछ जरूरतों
को पूरा कर रहा है। उसकी बाकी जरूरतें समाज के अन्य हिस्से पूरा कर रहे हैं।
इसमें अमानवीय शोषण और अपमान व तिरस्कार की एक अंतहीन शृंखला मौजूद थी। लेकिन,
कुल मिलाकर आर्थिक और जातीय सहूलियतों से उपजा यह ढाँचा इतना मजबूत हो गया था
कि इसे तोड़ने की जरूरत तक किसी को महसूस नहीं होती थी। बांग्ला उपन्यासकार
विभूति भूषण बंदोपाध्याय के उपन्यास गणदेवता की शुरुआत ही यहाँ से होती है।
एक पंचायत बैठी हुई है। गाँव के लोहार ने गाँव के किसानों के औजारों पर फल
लगाने की बजाय बगल के कस्बे में छोटी सी दुकान लगाकर वहाँ पर अपना काम शुरू कर
दिया है। वह गाँव के किसानों से प्रजा-पौनी पर निर्भर नहीं रहना चाहता। काम
कराने तो हर कोई आ जाता है, लेकिन जब फसल का हिस्सा देने की बारी आती है तो हर
कोई अपनी टहल करवाता है। वह अपनी दुकान पर आने वाले लोगों के औजारों पर फाल
लगाता है और इसके बदले में अपना मेहनताना लेता है। लेकिन, इससे गाँव की
व्यवस्था बिगड़ गई है। गाँव की पंचायत उसे बाध्य करना चाहती है। उसे उसी
पुरानी व्यवस्था में बांधना चाहती है। लेकिन, अब इसका उपाय तो न था। खैर तमाम
उतार-चढ़ावों के बाद अंततः वह लोहार शहर की राह पकड़ लेता है और जब कई सालों
बाद वापस आता है तब उसे शहर की हवा लग चुकी होती है। वह शहर में किसी कारखाने
में काम कर रहा है। अब उसके मिजाज में काफी कुछ सर्वहारापन आ चुका है।
गौर से देखें तो भारत में गाँवों से शहरों की ओर हो रहा यह माइग्रेशन कभी थमा
नहीं है। कभी वह तेज हो जाता है तो कभी धीमा। लेकिन, यह एक सतत चलने वाली
प्रक्रिया रही है। हाल के सालों में हुए प्रमुख बड़े आंदोलनों को देखें तो
उसमें खेती-किसानी के सामर्थ्य में आई इस परेशानी को साफ देखा जा सकता है।
पिछले तीन सालों में महाराष्ट्र में मराठों का, गुजरात में पटेलों का और
हरियाणा में जाटों का आंदोलन ऐसा रहा, जिसने समाज में काफी उथल-पुथल पैदा की।
इसके चलते समाज व्यवस्था की सामान्य चर्या प्रभावित हुई। मोटा-मोटी इन तीनों
ही आंदोलनों की तड़प एक सी दिखती है। ये तीनों ही अपने-अपने समाजों की
प्रभुत्वशाली कृषक जातियाँ हैं। इनके हाथों में खेती की जमीनें और उपकरण रहे
हैं। अपने खेती के कामों पर ये जातियाँ गर्व भी करती रहीं हैं। लेकिन, पिछले
कुछ सालों में खेती से होने वाली आमदनी में भारी गिरावट आई है। ऐसे में कृषक
जातियों में सरकारी नौकरी की ललक पहले की तुलना में ज्यादा तेज हुई है। ऐसा
नहीं है कि पहले वे सरकारी नौकरी करना पसंद नहीं करते थे। बल्कि सरकारी नौकरी
अपने भाग्य को बदलने की एक प्रमुख आकांक्षा के तौर पर पहले भी मौजूद रही है।
पर खेती की आमदनी में हुई गिरावट के चलते अब तो यह मजबूरी जैसी बन गई है। इसके
चलते अपने प्रदेशों में प्रभुत्वशाली जातियाँ भी खुद को आरक्षण कोटे में शामिल
कराने के लिए आंदोलन में जुटी हुई है। उनकी ख्वाहिश शायद यही है कि आरक्षण
कोटे में आने भर से उनके लिए सरकारी नौकरियों की इफरात हो जाएगी और उनके
बच्चों को खेती के काम में अपना देह नहीं गलाना पड़ेगा। कायदे से देखा जाए तो
खेती से हो रहा है यह भी एक तरह का पलायन ही है।
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वर्ष 2018 का मार्च और अप्रैल हमारे लिए अनशन और उपवासों (उपहासों) का तोहफा
लेकर आया है। (ऐसा इसलिए कहना पड़ा कि इसी अप्रैल के महीने में दिल्ली महिला
आयोग की अध्यक्ष और आदमी पार्टी की नेता स्वाती मालीवाल ने रेप रोको अभियान के
तहत नौ दिन का अनशन किया। जबकि, विश्व हिंदू परिषद के पुराने राष्ट्रीय
अध्यक्ष ने भी तीन का उपवास (??) रखा। हालाँकि, यह उपहास दिल्ली में नहीं होने
और सत्तारूढ़ पार्टी के नहीं चाहने के चलते बहुतों की निगाह से अछूता रह गया
है। उनके उपवास के दिन पता नहीं महात्मा गांधी को कैसा महसूस हुआ होगा।
खैर, 'अनशन एक्सपर्ट' अन्ना हजारे का दिल्ली के रामलीला मैदान में चल रहा आमरण
अनशन इस बार सात दिन चला। अनशन के सातवें दिन यानी 29 मार्च 2018 को
महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस ने उन्हें नारियल पानी पिलाकर
अनशन तुड़वाया। अन्ना हजारे ने अपने साथ अनशन पर बैठे लोगों और आम जनता को
बताया है कि सरकार ने उनकी सभी माँगे मान ली हैं। छह माह में अगर माँगें नहीं
मानी गईं तो वे फिर से अनशन पर बैठ जाएँगे।
इससे पूर्व लगभग सात साल तक चली कुंभकर्ण से भी लंबी नींद से जागे अन्ना हजारे
ने रामलीला मैदान में अनशन की घोषणा की थी। अनशन वाले दिन वे पहले की तरह ही
महात्मा गांधी की समाधि पर गए। वहाँ पर महात्मा गांधी को याद करने के बाद वे
रामलीला मैदान पर आ गए। यहाँ पर भव्य पांडाल और मंच सजाया गया था, जो उनके
अनशन करने का इंतजार कर रहा था। उनके साथ अनशन करने वाले भी बैठ सकें और जो
जनता उमड़ कर आने वाली थी, उसे धूप नहीं लगे, इसका इंतजाम करने के लिए भी बड़े
शामियाने लगाए गए थे। अन्ना आंदोलन के पिछले सत्र से इस बार संघ ने बहुत बड़ा
सबक सीखा हुआ था। पिछले सत्र में सबकुछ योजना अनुसार ही हुआ था। एक सरकार को
अकर्मण्य और भ्रष्ट साबित कर दिया गया। उसके इकबाल को समाप्त कर दिया गया। बस
कमी रह गई तो एक कि आंदोलन से राजनीतिक पार्टी की एक छोटी सी धारा फूट पड़ी जो
कि बाद में दिल्ली की मुख्य धारा बन गई। देश के कई अन्य हिस्सों में भी इस
टूटी-फूटी धारा के निशान दिखने लगे। हालाँकि, अब कई जगह पर इसके अवशेष भी
समेटे जा रहे हैं। उस धारा से भी बाद में एक धारा निकल गई और उसके भी अवशेष
समेटे जा रहे हैं।
पिछले सत्र से सबक लेते हुए इस बार अन्ना के अनशन को राजनीतिज्ञों से पूरी तरह
से दूर रखा गया। (सोचिए कि राजनीति नहीं करने की सलाह आम लोगों के लिए कितनी
बड़ी साजिश है)। यहाँ तक कि अन्ना आंदोलन में शामिल होने वाले को यह इस बात का
शपथपत्र भी देना था कि वो राजनीति में सक्रिय नहीं होगा। समझा जा सकता है कि
अनशन के पिछले सत्र से सबक लेते हुए इस बार संघ कोई कोर-कसर नहीं चाहता था। इस
बात की पूरी सावधानी बरती गई कि कोई और राजनीतिक पार्टी इससे फूट न निकले।
इसलिए इस बार कोई नाटक नहीं हुआ। पूरी भव्यता के साथ आमरण अनशन किया गया। सही
समय पर उन्हें नारियल पानी पिलाकर अनशन तुड़वा भी लिया गया। अब सात जनम, सात
समुंदर और सात फेरे वाले समाज में सात से बढ़िया गिनती क्या हो सकती है। तो
सातवें दिन हमारे आज के इन महात्मा गांधी महोदय ने अपना अनशन तोड़ दिया।
हालाँकि, यह सबकुछ उतना सुंदर और भव्य नहीं हो पाया। पंजाब से आए किसानों के
कुछ प्रतिनिधियों का गुस्सा उबल पड़ा। अनशन में शामिल लोगों ने इस बात पर
विरोध भी जताया कि सरकार के सिर्फ आश्वासन पर अनशन क्यों तोड़ा गया। किसानों
में से किसी एक ने ईराकी पत्रकार मुंतजर अल जैदी की परंपरा पर चलते हुए
मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस पर अपना जूता भी फेंक मारा। हालाँकि, वो उस जगह
नहीं पहुँच पाया जहाँ उसे पहुँचना चाहिए था। फड़नवीस भाषण दे रहे थे। जूता हवा
में लहराता हुआ उनके सामने से होता हुआ बगल मे आ गिरा। ज्यादातर समाचार
माध्यमों ने इसे पचा लिया। कुछ ने प्रगट भी किया।
किसानों का कहना था कि अन्ना ने कर्जमाफी के मुद्दे पर सरकार द्वारा ठोस
कार्रवाई करने के बगैर ही अनशन तोड़ दिया। अब इस पर अन्ना अनशन के आयोजकों का
कहना है कि किसानों की कर्जमाफी का मुद्दा उनकी माँगों की सूची में था ही
नहीं। मुख्यतः तीन मुद्दों पर सरकार के आश्वासन के बाद उन्होंने अनशन तोड़ा
है। किसानों की समस्याओं का निवारण, लोकपाल-लोकायुक्त कानून और चुनाव सुधार की
माँगों पर सहमति मिली है। अन्ना के माँगपत्र पर सरकार के जो जवाब हैं, उन्हें
देखें तो पता चला कि उसकी भाषा कितनी गोलमोल है। अन्ना जब अनशन पर बैठते हैं
तो मराठी मानुषों के जरिए उन्हें मनाया जाता है। कांग्रेस यह काम विलासराव
देशमुख व अन्य मराठी नेताओं के जरिए करती थी। भाजपा ने यह काम मराठी मानुष
देवेंद्र फड़नवीस के हाथों से किया।
सवाल यह है कि अन्ना की यह नींद अचानक आखिर क्यों टूटी। इसका जवाब भी मराठी
मानुषों में ही छिपा हुआ है। लगभग महीने भर बीते होंगे। महाराष्ट्र के नासिक
से किसानों का एक जनसमुद्र सड़कों पर उतर आया। इसकी दिशा मुंबई की ओर थी।
किसान पुरुष और औरतें अपने बाल-बच्चों को साथ लेकर मुंबई की ओर अपना हक माँगने
निकल पड़े। चलते-चलते उनके पांवों में छाले पड़ गए। अपने तलवों से उतरे हुए
चमड़ों को भी संभालकर वे चलते रहे। किसी के तलवे से खून बह रहा था तो किसी में
मवाद की टीस भरी हुई थी। मुंबई की गगनचुंबी इमारतें भी उनके चलने की धमक से
हिलने सी लगीं। मुंबई की सड़कों पर लाल टोपी पहने इन किसानों का हुजूम किसी
नदी की तरह प्रवाहमान चलता रहा। इन किसानों ने आत्महत्या की बजाय लड़ने का
नारा दिया था। वे मुंबई नाम के उस शहर की ओर बढ़ रहे थे जो देश की आर्थिक
राजधानी कहलाता था और प्रदेश की राजधानी तो खैर है ही।
किसानों के इस जुलूस को मुंबई में अभूतपूर्व समर्थन हासिल हुआ। लोग उनके
स्वागत में रास्ते में पानी लेकर खड़े रहे। उन्हें खाना खिलाया गया। उनके
पैरों के जख्म पर मरहम लगाया गया। किसानों के जनसमुद्र से थर्रायी सरकार ने
उनकी माँगों पर हामी भरने में जरा भी ना-नुकुर नहीं की। सभी माँगें तुरंत मान
ली गईं। किसानों को वापस भेजने के लिए स्पेशल रेलगाड़ी का इंतजाम किया गया।
उन्हें उनके घरों तक सकुशल पहुँचाया गया। अब, आश्वासनों पर अमल कितना होगा, यह
देखने की बात होगी।
क्या अन्ना का अनशन किसानों के इस शक्तिप्रदर्शन से उपजा हुआ था और छह महीने
बाद फिर आंदोलन का समय रखने के पीछे आगामी चुनावों की कोई मंशा छुपी हुई है।
जाहिर है कि इसका एकदम सटीक उत्तर अभी नहीं दिया जा सकता।
अगर आप समय के चक्र को थोड़ा पीछे घुमाएँ तो सात मई 2011 को ग्रेटर नोएडा
(गौतमबुद्ध नगर) के भट्टा पारसौल गाँव में कुछ क्षणों के लिए रुकना जरूर पसंद
करेंगे। इस दिन यहाँ पर अपनी जमीनों के अधिग्रहण का विरोध कर रहे किसानों का
धैर्य जवाब दे गया। पुलिस की हिंसक कार्रवाई का उन्होंने भी मुँहतोड़ जवाब
देने की कोशिश की। नतीजे में दो किसानों की मौत हुई तो दो पुलिस वाले भी मारे
गए। सैकड़ों लोग घायल हो गए। जवाब में पूरी व्यवस्था ने और भी ज्यादा ताकत से
किसानों का दमन करने की कोशिश शुरू की। लेकिन, इस घटना से भूमि अधिग्रहण को
लेकर किसान समुदाय में चल रही खदबदाहट को पूरी तरह से सामने लाकर रख दिया।
सरकार किसानों की माँगों पर सोचने के लिए मजबूर हुई। सभी पार्टियों के
प्रतिनिधियों की सहमति से भूमि अधिग्रहण कानून बनाया गया। इसमें जमीन लेते समय
किसानों को तमाम तरह की सुविधाएँ देने की बात कही गई। अधिग्रहण की शर्तों को
कुछ हद तक किसानों के मुफीद बनाया गया। इससे पहले सिंगूर व नंदीग्राम जैसी
जगहों पर भूमि अधिग्रहण काफी विवादों में रह चुका था।
लेकिन, हैरत की बात तो यह है कि 2014 में हमारे प्रधानजी की सरकार आने के बाद
जिस कानून को सबसे पहले शिकार बनाने की कोशिश की गई वह भूमि अधिग्रहण कानून ही
था। इस कानून की कई धाराओं को बदलने के लिए सरकार नए सिरे से भूमि अध्यादेश ले
आई। हालाँकि, राज्यसभा में सरकार का बहुमत नहीं होने के चलते इसे पारित नहीं
कराया जा सका। इससे इसे कानून का रूप नहीं मिला। अध्यादेश अगर छह महीने की
अवधि में लोकसभा और राज्यसभा से पारित नहीं होता तो खारिज हो जाता है। इसलिए
सरकार ने एक बार फिर जोर लगाया और दोबारा अध्यादेश जारी किया। लेकिन, राज्यसभा
में बहुमत का मसला फिर इस अध्यादेश की राह में आकर खड़ा हो गया। खैर, किसानों
की जमीनें औने-पौने में हथियाने की पूँजीपतियों की साजिश में कुछ समय के लिए
लगाम लग गया। पर अगर आप पिछले छह-सात सालों में हुए आंदोलनों के पैटर्न को
देखें तो कुछ बातें साफतौर पर कही जा सकती है। पिछले दिनों अलग राज्यों में उन
जातियों ने आरक्षण के लिए आंदोलन किये जो अपने राज्यों में काफी संख्या में
थीं, समृद्ध मानी जाती थीं और जिनके पास खेती किसानी के ज्यादातर साधन मौजूद
थे। गुजरात में पाटीदार समुदाय, महाराष्ट्र में मराठा और हरियाणा में जाट
आरक्षण आंदोलन को इस नजरिये से देखा जा सकता है।
खेती में आया हुआ यह संकट इन समृद्ध जातियों को भी पीछे धकेल रहा है। उनकी
जेबें खाली होती जा रही है। बाजार के सामने वे असहाय हो रहे हैं। उनकी जमीनें
बिक रही हैं। उनकी जमीनों पर अधिग्रहण का खतरा बढ़ रहा है। जिन फसलों को वे
उगाते हैं, उनकी लागत भी नहीं निकल पा रही है। भारत में ऐसे दृश्य अब कोई
यदा-कदा दिखने वाले दृश्य नहीं है जब कोई किसान अपनी ही फसल को बर्बाद कर रहा
हो। किसान अपनी पूरी की पूरी टमाटर की उपज को सड़कों पर बिखेर दे रहे हैं।
सब्जियों को पशुओं को खाने के लिए छोड़ दिया जा रहा है। जो वे पैदा कर रहे हैं
उसकी कोई कीमत ही नहीं मिल रही है। खेती में पैदा हुए इस संकट से निकलने के
लिए राज्यों में समृद्धशाली जातियाँ भी आरक्षण के जरिए अपनी हालत में सुधार का
वहम पालने लगी हैं। इसे लेकर तमाम आंदोलन किए जा रहे हैं। आंदोलन हिंसक भी हो
रहे हैं।
समझा जा सकता है कि इन आंदोलनों ने उस संकट की तरफ से ध्यान भटकाने में काफी
मदद की है, जिसने भारतीय खेती को पूरी तरह से अपनी जकड़ में ले लिया है।
मध्यप्रदेश में एक जगह है मंदसौर। मई-जून 2017 में मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र
के किसान आंदोलन कर रहे थे। उनकी मुख्य माँगों में कर्जमाफी और अपनी उपज का
अच्छा मूल्य आदि शामिल था। छह-सात जून को मंदसौर में किसानों का धैर्य जवाब
देने लगा। इस दौरान किसानों पर हुई हिंसा में सात किसानों को अपनी जान गँवानी
पड़ी और सैकड़ों किसान घायल हो गए। इस घटना की व्यापक प्रतिक्रिया हुई और तमाम
स्तरों पर इसकी निंदा की गई। नए सिरे से आंदोलन की रणनीति बनाई गई। हालाँकि,
प्रतिरोध के संगठित नहीं होने का लाभ एक बार फिर से सत्ता प्रतिष्ठान को हासिल
हुआ है। इसी तरह से, डेढ़-दो महीने पहले राजस्थान में भी किसान संगठनों को एक
बड़ा प्रतिरोध संगठित करने में कामयाबी हासिल हुई। अगर आप थोड़ा ध्यान दें तो
देखेंगे कि कैसे तमिलनाडु के किसान जंतर-मंतर पर अपना सिर पटक-पटक कर भी सरकार
से अपनी बात मनवाने में कामयाब नहीं हुए थे। तमिलनाडु में खेती के संकट के
चलते किसान आत्महत्याओं की दर में भारी तेजी आई है।
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धरती जब देने पर आती है तो वह इतना देती है कि वह लोगों के हाथों में नहीं
समाता है। किसान अपने-अपने एक-एक पौधे की जी-जान से रक्षा करता है। उसका पोषण
करता है। पर उसकी यह अतिशय देखभाल ही खुद किसान के गले में पड़ा हुआ फंदा बन
जाता है। उपज इतनी ज्यादा हो जाती है कि उसके दाम गिर जाते हैं। दाम गिर जाने
का मतलब है एक और तरह से किसानों की तबाही। अपने उपन्यास द ग्रेप्स ऑफ रेथ
(लाल गुस्से के अंगूर) में जॉन स्टाइनबैक प्रचुरता से उपजने वाले संकट पर बड़ी
विहंगम दृष्टि डाली है। जरा इस पर नजर करें -
कैलीफोर्निया में बसंत के आगमन के क्या कहने। घाटियों में फलदार पेड़ों पर
खूबसूरत फूल खिल आते हैं और उथले समुद्र में सफेद पानी दिखने लगता है। हरी
लताओं पर अंगूर के पहले अंकुर फूट रहे हैं और तनों की तरफ झुकते चले आ रहे
हैं। नरम छातियों की तरह उभरी पहाड़ियाँ चारों ओर फैली हैं। बेहद खूबसूरत। हरी
समतल घाटियों में मीलों तक फैली पीली हरी दलहन और गोभी के फूलों की कतारों की
मनमोहक उगान देखते ही बनती है।
पेड़ों पर बौर फूट रही है। फूलों से पंखुड़ियाँ झड़ती हुई जमीन पर गुलाबी,
सफेद चादर ओढ़ा रही हैं। रंग-बिरंगी वनस्पति जमीन को ढकती चल रही है। चेरी,
सेब, नाशपातियाँ, आड़ू, अंजीर के फल उनके फूलों की जगह लेते चल रहे हैं। पूरा
कैलीफोर्निया उगती पैदावार से ढकता चल रहा है। फलों के बढ़ने से टहनियाँ जमीन
पर झुकी चली आ रही हैं। इनको सहारा देने के लिए डंडों का इस्तेमाल करना होता
है।
इस बढ़ती फलदारी के पीछे समझदार और शिक्षित लोगों के दिमाग हैं। ऐसे मँझे हुए
लोग जो बीजों के साथ दूसरे प्रयोग करते चलते हैं। ऐसी तकनीकों पर पर शोध करते
हुए जो जमीन के नीचे जड़ों की दुश्मन ताकतों, कीड़ों वगैरा पर काबू पाते हुए
फसलों का विकास करते चलते हैं। ये लोग बहुत सावधानी से और लगातार बीजों और
फसलों को आदर्श बनाने में जुटे रहते हैं। रसायनज्ञ पेड़ों पर छिड़काव करते
हैं। अंगूरों पर आ सकने वाली संभावित बीमारियों का इलाज करते हैं। डाक्टर और
दवाइयों के दूसरे जानकार लोग लगातार पौधों की देखभाल में जुटे रहते हैं।
बीमारी से खराब हुई जड़ों और पौधों को नष्ट करते हुए चलते हैं। जो लोग इन्हें
अपने हाथों से रोपते हैं, वे सर्वाधिक बुद्धिमान हैं, क्योंकि यह डॉक्टरी वाला
काम है। एकदम नरमाई से लबरेज। इसलिए ऐसे लोगों के अंदर डाक्टर का दिल और हाथों
में में जबरदस्त कारीगरी चाहिए। ये लोग पौधों के जख्म ठीक करते हैं, उन्हें
आँधी-तूफान से बचाते हैं। ये महान लोग हैं।
पौधों की कतारों के बीच चलते किसान खरपतारों को उखाड़ फेंकते और इसके नीचे की
परतों को उथल-पुथल डालते, ताकि यह जयादा उपजाऊ ताकत पा सके। पानी को जमीन के
नीचे जज्ब कर सके। सिंचाई के लिए छोटे-छोटे पोखर तैयार किए जाते। खरपतवारों को
समूल नष्ट किया जाता ताकि वे पौधों की नमी को न सोख पाएँ।
लताओं पर फूलों का झड़ना और फलों का उगना अबाध जारी है। हर सरकते लम्हे के साथ
पत्ते ज्यादा हरे होते चल रहे थे। भरी-भराई टहनियों पर पंछियों के छोटे अंडों
की तरह फल लटकते चल रहे थे और लकड़ी के डंडों के सहारे पर टिकी ये टहनियाँ
झुकी चली जा रही थीं। आड़ू ठोस आकार ले रहे थे और नाशपातियाँ बढ़ती चल रही थीं।
उनके नीचे हरे बटन उग आए थे। यह बटन आकार में बढ़ते चल रहे थे। खेतों में काम
करने वाले लोग और उनके मालिक अपने बागान का परीक्षण करते आगे आ सकने वाली
आमदनी की गणनाओं में जुटे थे। इस साल भारी-भरकम फसल आने को थी। लोगों को गर्व
था कि अपने ज्ञान के बल पर वे आगे आने वाले हर साल को ऐसा ही कुछ में बदल
डालेंगे। अपने ज्ञान के दम पर वे संसार का कायाकल्प कर डालेंगे। छोटी-छोटी
गंदम ज्यादा बड़ी और उपजाऊ बना डाली गई। छोटे-छोटे खट्टे सेबों को बड़ा और
स्वादिष्ट बना दिया गया। नए अंगूर पेड़ों पर लटकते चलते रहे थे, पर इन्हें
पक्षी अपना भोज्य बना रहे थे। रंग-बिरंगे अंगूर थे, लाल और काले, हरे, पीले,
गुलाबी, जामुनी और पीले, हर रंग की अपनी खुशबू थी। जो लोग अपने प्रयोगात्मक
फार्मों में काम कर रहे थे, उन्होंने नए फल पैदा कर लिए थे - ज्यादा रसीले
चालीस किस्म के प्लम, कागजी बादाम। जब भी वे काम में जुटते तो अपने श्रम से
जमीन को ज्यादा निपुण बनाकर ज्यादा मात्रा में फल उगाने में कामयाब हो रहे थे।
सबसे पहले चेरी पक आई। एक सेंट में आधा पौंड। पर इतने भर के लिए हम इन्हें
नहीं तोड़ सकते। काली चेरी और लाल चेरी। रसीली और मीठी। हरेक फल को पंछियों ने
ठूँगा हुआ और उन छेदों में मक्खियाँ भिनभिनाने को आतुर। जमीन पर लटके कवर के
साथ सूखे बीज गिरते हुए।
जामुनी प्रून नरम और मीठे। रसभरे। हे भगवान। इन्हें तोड़ पाना अपने वश की बात
नहीं। तोड़ो, फिर सुखाओ, फिर दवाई मलो। इतनी मजदूरी दे पाने के काबिल हम नहीं
है। चाहे फिर ये मजदूरी कितनी ही क्यों न हो। गिरकर सारे की सारी प्रून जमीन
पर चादर की तरह आ बिछीं। इसके कवर पर झुर्रियों ने जगह बना ली और दावत उड़ाने
को तैयार मक्खियाँ इन पर आ बिराजीं। अब घाटी में मीठी सड़ांध पसरने लगी। उनका
रसीला मीठा गूदा काला पड़ गया और फसलें जमीन पर ढेर हो गईं।
आड़ू पीले और नरम पड़ गए। पाँच डालर कीमत में एक टन। चालीस-पचास पौंड के बक्से
महज पाँच डालर में। पौधों पर इतनी जुगाड़ और भारी मेहनत की थी। दवाइयों का
छिड़काव किया था। फल तोड़े और इकट्ठे किए थे। बक्सों में बंद किया गया था।
ट्रकों पर लदान किया था। फल-मंडी में पहुँचाया गया था और अब कीमत नसीब हो रही
है पाँच डालर में पाँच बक्से। हम ये नहीं होने दे सकते। इधर पीले पड़ते फल
जमीन पर बिछते चल रहे हैं। कीड़े-मकोड़े उनके रस में घुसते चले जा रहे हैं। और
अब बाकी है हवा में सड़ते चलने की गंध।
और अब ये अंगूर, इनसे अच्छी शराब बनना ही मुमकिन नहीं रहा। लोगों को अच्छी
शराब मुहैया नहीं हो सकती। लताओं से अंगूर उतारे। अच्छे-भले। अब वे सड़ांध का
ढेर बन गए। इनकी बेलों को पकड़ो, तो हाथ लगती है गर्द और सड़न।
बचा हुआ फार्मिक एसिड।
गंधक और टैनिक एसिड की गंध।
ये गंध अच्छी शराब बनने नहीं देगी। यह सिर्फ सड़ांध है और रसायनों की गंध है।
ओ, इसमें तो सिर्फ एल्कोहल बाकी बचा है। ये पी सकने के काबिल नहीं है।
छोटे किसानों पर ज्वार की तरह कर्ज बढ़ता चला जा रहा था। वे पौधों पर छिड़काव
का खर्च उठा रहे थे, मगर फसल बिक नहीं रही थी। वे फसलों की देखभाल और सेवा
सुरक्षा में जुटे थे, मगर कीमत शून्य। ज्ञानवानों ने काम अंजाम दिया था और
अपना मेहनताना लेकर चल निकले थे, मगर फल जमीन में सड़ता चल रहा था और यह
सड़ांध हवा में जहर घोल रही थी। इससे जो शराब निकाली जा रही थी उसमें से
अंगूरों की गंध गायब थी। अगर कुछ था तो गंधक, टैनिक एसिड और एल्कोहल। बस।
आने वाले साल में ये छोटे बागान किसी बड़े मालिक के पास जाने वाले थे, क्योंकि
कर्ज इन छोटे मालिकों को डुबो चुका था।
इस सब पर मालिकाना हक बैंक का होने वाला था। सिर्फ बड़े जमींदारों का जिंदा रह
पाना ही मुमकिन था, क्योंकि शराब उद्योगों पर उन्हीं का कब्जा था। अब भी चार
आड़ू काट लो और डिब्बाबंद कर पंद्रह सैंट में फरोख्त कर डालो। डिब्बा बंद हो
जाने के बाद आड़ू खराब होने के खतरे से भी मुक्त। उसके बाद इसका जीवन चार साल
होने वाला था।
यह सड़ांध पूरे राज्य को ग्रस रही थी। यह दमघोंटू गंध थी। जो लोग पेड़ों पर
ग्राफ्टिंग का काम जानते हैं और जमीन को ज्यादा उपजाऊ बनाने के नुस्खे ईजाद
करने के लिए जाने जाते हैं, उन्हें ये मोटे जमींदार अपनी उपज में से एक अंश
खाने को देने के लिए तैयार नहीं थे। जिन लोगों ने संसार के वास्ते नए फूलों की
किस्में तैयार की थीं, वे ही ऐसी कोई व्यवस्था ईजाद नहीं कर सके, जहाँ उनके
अपने हमवतनी उन फलों को चख सकें। यह राज्य की सबसे बड़ी नाकामयाबी थी। एक
व्यापक संताप था।
ज्यादातर फसल को नष्ट करने की नौबत आ गई थी, ताकि कीमतें और ज्यादा न गिर
पाएँ। यह सर्वाधिक मुश्किल और कड़वी सच्चाई थी। संतरों के ट्रकों के ट्रक जमीन
में गाड़े जा रहे थे। मीलों दूर से लोग फल खरीदने को आते, मगर यह मुमकिन नहीं
हो पाता था। वे दस सैंट फी-दर्जन कैसे खरीदते। ऐसे में मालिकों ने संतरों पर
मिट्टी का तेल छिड़क दिया। अपने इस अपराध पर वे नाराजगी और मजबूरी दिखाते, पर
बाहर से आए खरीददारों को उचित मूल्य न देने के लिए कोसते। लाखों लोग भूख से
बिलख रहे थे। फलों की उन्हें जरूरत थी, मगर पहाड़ियों के सुनहरीपन पर मिट्टी
का तेल छिड़का पड़ा था।
सड़ांध फैलती चली जा रही थी।
समुद्री जहाजों में ईंधन के लिए काफी जलाई जाने लगी। ऊष्मा पैदा करने को फसलों
की होली जलाई जा रही थी। यह ज्यादा गर्म होती। आलू नदियों में बहाए जा रहे थे,
मगर किनारों पर चौकीदार तैनात थे ताकि कोई बंदा डुबकी मारकर इन्हें बाहर न
निकाल ले आए। सुअरों का कत्लेआम और दफनाया जाना जारी था। खाए जा सकने वाली हर
चीज जमीन के नीचे सड़ाई जा रही थी।
और ये अपराध बेधड़क चल निकल रहा था। इतना बड़ा संकट था कि सिर्फ रो देना ही
इसका सांकेतिक निरूपण नहीं हो सकता था। ये एक ऐसी नाकामयाबी थी जो हर सफलता पर
भारी पड़ रही थी। उपजाऊ जमीन, हरे-भरे पौधे, मोटे-ताजे तने और पके हुए फल। भूख
से बिलखते-मरते हुए बच्चों को बिलकुल मरना चाहिए, क्योंकि एक-एक संतरा उनके
मालिकों को लाभांश नहीं पहुँचा रहा था। और सरकारी अमला ये प्रमाणपत्र जारी कर
रहा था, ये मरने वाले भोजन की कमी से मरे, क्योंकि भोजन को सड़ाया जाना जरूरी
था। उसका सड़ना अनिवार्य था।
लोग बाग जाले उठाए नदी किनारों पर आते ताकि बहते पानी में से कुछ आलू बाहर
निकाल सकें। मगर चौकस गार्ड उन्हें उधर फटकने से रोक देते। वे दनदनाती
गाड़ियों में आते ताकि संतरों को ठीक से दबाया जा सके। उन पर भली-भाँति मिट्टी
का तेल छिड़का जाता और इधर लाचार खड़े लोग आलुओं को बह निकलते देखते। आसपास
किसी खंदक में कत्ल होते सुअरों की चिंघाड़ें सुनाई पड़तीं और उन्हें चूने से
ढके जाते देखा जाता। लोग उन पहाड़ियों को निहारते चलते जिन पर संतरों की उम्दा
फसल फूट रही थी। मगर इधर वे भूख के मारे तड़प रहे थे। अब उनकी आँखों में
गुस्से के लाल डोरे फूट चले थे। इन मनुष्यों की आत्माओं में लाल गुच्छों के
अंगूर भरते चल रहे थे और ये रंग लगातार और गाढ़ा होता चला जा रहा था।
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नासिक से मुबई तक चले किसानों के लांग मार्च में भी किसानों की आँखों में खून
उतरने की कुछ ऐसी तस्वीर हम देख सकते हैं। छह मार्च 2018 को नासिक से शुरू हुई
यात्रा छह दिनों बाद मुंबई में जाकर समाप्त हुई। इस दौरान किसानों ने लगभग 200
किलोमीटर की दूरी पैदल तय की। चालीस हजार से ज्यादा किसानों का यह सैलाब जल
चलने लगा तो लगा कि जैसे सड़कों पर कोई लाल नदी बह निकली हो। अपनी लाल टोपियों
के चलते वे दूर से ही किसी लालगीर (द ग्रेप्स ऑफ रेथ में इस्तेमाल शब्द) जैसे
ही लग रहे थे। उनकी आँखों में उतरने वाले खून का रंग भी लगातार गाढ़ा होता जा
रहा था।
उस महाविपदा को लेकर उनकी आँखों में सवाल फूट रहे थे, जो उन पर चौतरफा टूट
पड़ी है। अपने ऊपर हर रोज आ पड़ने वाली मुसीबतों से वह टूटता जा रहा है। नेशनल
क्राइम रिकार्ड ब्यूरों के आँकड़ों का विश्लेषण करते हुए टाइम्स ऑफ इंडिया ने
सात जनवरी 2017 को किसानों की आत्महत्या पर रिपोर्ट प्रकाशित की है। इसमें
बताया गया है कि वर्ष 2014 में देश भर में 5650 किसानों ने आत्महत्या की थी।
जबकि, वर्ष 2015 में यह संख्या बढ़कर 8007 हो गई। किसानों की सबसे ज्यादा
आत्महत्याएँ महाराष्ट्र में हुई है। यहाँ पर 3030 किसानों ने अपनी जान दे दी।
जबकि, तेलंगाना में 1358 और कर्नाटक में 1197 किसानों ने खुद ही अपनी इहलीला
समाप्त कर ली। इन तीनों राज्यों के अलावा, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश,
छत्तीसगढ़ में भी किसान बड़े पैमाने पर आत्महत्या कर रहे हैं।
आत्महत्या के ये आँकड़े खेती की तबाही के साथ-साथ खेती से होने वाले पलायन की
तरफ भी इशारा करते हैं। वर्ष 2014 में 6710 खेत मजदूरों ने अपनी जीवनलीला
समाप्त कर ली। जबकि, वर्ष 2015 में इसमें कुछ हद तक गिरावट आई। वर्ष 2015 में
4595 खेत मजदूरों ने आत्महत्या कर ली। खेत मजदूरों की मौत के आँकड़ों में आई
इस कमी के पीछे खेती किसानी के काम से मजदूरों के पलायन को बड़ी वजह माना जा
रहा है। दरअसल, खेती की लगातार बिगड़ती हालत के चलते बड़े पैमाने पर मजदूर
खेती के काम को छोड़कर अन्य कामधंधों की तरफ जाने को मजबूर हुए हैं। इसके चलते
खेतिहर मजदूरों की आत्महत्या की दरों में कुछ कमी आई है। लेकिन, ये मजदूर
शहरों में जिन हालात में गुजर-बसर कर रहे हैं और उनके जीवन पर वहाँ आने वाले
संकट क्या-क्या हैं, इस पर कहने को इन आँकड़ों में ज्यादा कुछ नहीं है।
किसानों की आत्महत्याओं को देश में ही घट रही कुछ अन्य चीजों के साथ जोड़कर
देखने से इनके कारणों को ज्यादा अच्छी तरह से समझा जा सकता है। हमारे देश की
एक फीसदी आबादी के पास वर्ष 2000 में पूरे देश की संपदा का 36.8 फीसदी हिस्सा
था। धन और संपदा पर यह कब्जेदारी 2014 में बढ़कर 49 फीसदी हो गई। जबकि, 2016
में देश की एक फीसदी आबादी के कब्जे में कुल धन संपदा का 58.4 फीसदी हिस्सा आ
गया। इससे समझा जा सकता है कि हमारे देश में धन-संपदा के संकेन्द्रण की
प्रक्रिया कितनी तेज है। पहले भी गरीबों का धन खिंच-खिंचकर अमीरों की तरफ जा
रहा था। लेकिन, यह प्रक्रिया इतनी तेज नहीं थी। अब यह गति बेहद तेज हो गई है।
हमारे देश के बड़े कारपोरेट घराने क्यों इस सरकार को इतना ज्यादा शह दे रहे
हैं, धन के संकेंद्रण की इस तेजी से भी समझा जा सकता है।
धन संकेंद्रण की इस स्थिति की तुलना अन्य देशों के साथ की जाए तो भी स्थिति की
भयावहता का अंदाजा लगाया जा सकता है। चीन के एक फीसदी लोगों के पास धन-संपदा
का 43.8 फीसदी हिस्सा है। जबकि, इंडोनेशिया के एक फीसदी आबादी के पास कुल
धन-संपदा का 49.3 फीसदी है। ब्राजील में यह 47.9 प्रतिशत व अफ्रीका में 41.9
प्रतिशत है। धन और संपदा का कुछ हाथों में सिमटने की यह प्रक्रिया तो पूरी
दुनिया में ही तेज गति से चल रही है। लेकिन हमारे देश में यह बुलेट ट्रेन की
रफ्तार से चलने लगी है। अब इस बुलेट ट्रेन की रफ्तार से कितने किसान और मजदूर
कुचलकर मारे जा रहे हैं, इसकी परवाह यह सरकार भला क्यों करने वाली है।
हाँ, ये जरूर है कि लालगीरों का जब यह सैलाब सड़कों पर उतरता है तो बुलेट
ट्रेन भले अक-बकाकर खड़ी हो जाती है। कि अब आगे बढ़ूँ कि पीछे हटूँ।
रामधारी सिंह दिनकर 'हमारे कृषक' कविता में शायद यही बात कह रहे थे -
हटो व्योम के, मेघ पंथ से स्वर्ग लूटने हम आते हैं
दूध-दूध हे वत्स! तुम्हारा दूध खोजने हम जाते हैं।